तमिलनाडु में डीएमके सरकार और राज्यपाल R.N. रवि के बीच लंबित विधेयकों को लेकर उपजे टकराव के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए तीन महीने की प्रभावी समय-सीमा तय की गई थी।
अब, इस फैसले के एक महीने बाद, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से इस पर राय मांगी है। अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को सार्वजनिक महत्व के मामलों या कानूनी सवालों पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने की शक्ति देता है।
राष्ट्रपति ने सवाल उठाया है कि क्या राज्यपाल, जब उनके समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत अपने पास उपलब्ध विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह से बाध्य होते हैं?
उन्होंने यह भी पूछा कि क्या राज्यपाल संवैधानिक विवेक का उपयोग कर सकते हैं और क्या ऐसे विवेक का प्रयोग न्यायिक जांच के दायरे में आ सकता है? इस संदर्भ में उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला दिया, जो कहता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने पद की शक्तियों और कर्तव्यों के लिए अदालत में उत्तरदायी नहीं होते।
राष्ट्रपति मुर्मू का एक अन्य प्रश्न यह था कि यदि संविधान या राष्ट्रपति की शक्तियों के प्रयोग के लिए कोई स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित नहीं है, तो क्या न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा तय की जा सकती है? और क्या राष्ट्रपति भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अंतर्गत विवेकाधिकार का प्रयोग कैसे करें, इसका तरीका न्यायालय द्वारा निर्देशित किया जा सकता है?
इससे पहले, अप्रैल में न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के विधेयकों को लेकर दिए अपने फैसले में राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को रोकने को “अवैध और मनमाना” बताया था। अदालत ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को ऐसी स्थिति में तीन महीने के भीतर निर्णय लेने की समय-सीमा तय की थी।
इस फैसले में यह भी कहा गया कि यदि कोई विधेयक संविधान के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित कर सकते हैं। लेकिन यह केवल असाधारण परिस्थितियों में होना चाहिए और ऐसी स्थिति में कार्यपालिका को संयम बरतना चाहिए।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायालय नीति से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि यह कार्यपालिका का विशेषाधिकार है, लेकिन यदि मामला विधायी प्रक्रिया की संवैधानिक वैधता से जुड़ा है, तो इसमें न्यायालय की भूमिका अहम हो जाती है।
फैसले में कहा गया, “संविधान की व्याख्या करना और विधेयकों की संवैधानिकता पर विचार करना न्यायालयों का विशेषाधिकार है। कार्यपालिका को ऐसे मामलों में निर्णय लेने से बचना चाहिए और आवश्यकता होने पर अनुच्छेद 143 के तहत सवाल सुप्रीम कोर्ट को भेजना चाहिए।”
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि भले ही अनुच्छेद 143 के अंतर्गत दी गई राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन उसमें अपनाए गए संवैधानिक सिद्धांतों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर राष्ट्रपति किसी विधेयक को अदालत की राय के विपरीत खारिज करते हैं, तो उन्हें इसके स्पष्ट और ठोस कारण रिकॉर्ड में रखने होंगे।
अब यह सर्वोच्च न्यायालय पर निर्भर करता है कि वह राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए इन संवैधानिक सवालों पर विचार करने के लिए एक संविधान पीठ गठित करे या पूर्व में दिए गए दो जजों की पीठ के फैसले को बरकरार रखे।
यह सब ऐसे समय में हुआ है जब भारत के नए मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने हाल ही में पदभार ग्रहण किया है। अब देखना यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति के इन सवालों पर क्या दिशा देता है और यह भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था के लिए किस तरह की मिसाल पेश करेगा।

