रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड (RIL) के नेतृत्व वाले एक कंसोर्टियम ने कृष्णा-गोदावरी (KG) बेसिन गैस माइग्रेशन विवाद में 1.7 बिलियन डॉलर के मध्यस्थता पुरस्कार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। यह याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती देने के लिए दायर की गई है, जिसमें सरकार की कंपनी ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन (ONGC) के पक्ष में निर्णय देते हुए इस मध्यस्थता पुरस्कार को खारिज कर दिया गया था।
इस कंसोर्टियम में ब्रिटिश पेट्रोलियम एक्सप्लोरेशन (Alpha) लिमिटेड और निको (NECO) भी शामिल हैं। इन दोनों कंपनियों ने भी दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अलग-अलग अपील दायर की हैं। इस मामले से परिचित एक सूत्र ने नाम न बताने की शर्त पर जानकारी दी, “हां, हमने पिछले सप्ताह उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ याचिका दाखिल की है। अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कब करता है।” रिलायंस को इस बारे में मंगलवार दोपहर को भेजे गए ईमेल का कोई उत्तर नहीं मिला।
हाई कोर्ट का फैसला और $1.7 बिलियन का मध्यस्थता पुरस्कार
14 फरवरी 2024 को दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ, जिसमें जस्टिस रेखा पल्ली और सौरभ बनर्जी शामिल थे, ने मई 2023 में आए एकल न्यायाधीश के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें मध्यस्थता पुरस्कार को बरकरार रखा गया था। खंडपीठ ने इसे लागू करने योग्य नहीं माना और इसके पीछे चार प्रमुख कानूनी खामियों का उल्लेख किया:
- 2003 की एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट को छिपाना – कोर्ट ने माना कि RIL ने पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय को एक अहम रिपोर्ट का खुलासा नहीं किया, जो पेटेंट अवैधता के अंतर्गत आता है।
- मध्यस्थता की प्रकृति – न्यायालय ने कहा कि यह विवाद “अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता” के अंतर्गत नहीं आता।
- सार्वजनिक संसाधनों पर भरोसे का उल्लंघन – प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा मामला होने के कारण “पब्लिक ट्रस्ट डॉक्ट्रिन” यानी जनता के भरोसे के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ।
- अनुचित संवर्धन – यह निष्कर्ष निकाला गया कि संघ ने सरकार और ONGC से संबंधित गैस से अनुचित लाभ उठाया।
इस फैसले को भारत के ऊर्जा क्षेत्र के सबसे बड़े विवादों में से एक में केंद्र सरकार के लिए एक बड़ी जीत माना गया है। इससे सरकार को संघ से ₹12,800 करोड़ (लगभग $1.7 बिलियन) की वसूली का रास्ता भी साफ हुआ है।
सरकार की अतिरिक्त मांग
मार्च में स्टॉक एक्सचेंज को दी गई एक फाइलिंग में आरआईएल ने बताया कि सरकार ने गैस माइग्रेशन के आधार पर उनसे 2.81 बिलियन डॉलर की अतिरिक्त मांग भी की है।
विवाद की पृष्ठभूमि
यह विवाद साल 2000 से जुड़ा है, जब आरआईएल और उसके सहयोगियों ने आंध्र प्रदेश के तट से दूर KG-D6 ब्लॉक के लिए सरकार के साथ उत्पादन-साझाकरण अनुबंध (PSC) पर हस्ताक्षर किए थे। इस ब्लॉक में आरआईएल की 60%, बीपी की 30% और निको की 10% हिस्सेदारी है।
2013 में ONGC ने आशंका जताई कि उसके ब्लॉक में मौजूद गैस भंडार, RIL के KG-D6 ब्लॉक में मौजूद भंडारों से जुड़े हो सकते हैं। इसके बाद, डीगोलियर और मैकनॉटन नामक अमेरिकी सलाहकार फर्म ने दोनों कंपनियों के लिए एक संयुक्त अध्ययन किया। 2015 में आई रिपोर्ट में यह पाया गया कि ओएनजीसी के क्षेत्र से आरआईएल के क्षेत्र में गैस की भारी मात्रा में माइग्रेशन हुआ है।
इस रिपोर्ट के अनुसार माइग्रेटेड गैस की कीमत ₹11,000 करोड़ से अधिक आंकी गई। इसके बाद न्यायमूर्ति ए.पी. शाह की अध्यक्षता में गठित एक पैनल ने “अनुचित संवर्धन” के आधार पर मुआवज़े की सिफारिश की, जिसके आधार पर सरकार ने 1.5 बिलियन डॉलर के हर्जाने और 174 मिलियन डॉलर के ब्याज की मांग की।
मध्यस्थता प्रक्रिया और निर्णय
आरआईएल और उसके भागीदारों ने सरकार के दावे को खारिज करते हुए 2016 में मध्यस्थता प्रक्रिया शुरू की। 2018 में सिंगापुर में लॉरेंस बू की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय मध्यस्थ न्यायाधिकरण ने 2:1 के बहुमत से RIL के पक्ष में फैसला सुनाया। उनका मानना था कि पीएससी के तहत माइग्रेटेड गैस का दोहन वैध है, यदि वह अनुबंध क्षेत्र के भीतर है।
मध्यस्थता पैनल ने सरकार को 8.3 मिलियन डॉलर मध्यस्थता लागत के रूप में भुगतान करने का आदेश भी दिया।
सरकार की प्रतिक्रिया और कानूनी लड़ाई
सरकार ने इसके खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की। उसने आरोप लगाया कि RIL ने बिना उपयुक्त प्राधिकरण के गैस निकाली और जलाशय की कनेक्टिविटी से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी 2003 से ही छिपाई।
2023 में एकल न्यायाधीश ने मध्यस्थता पुरस्कार को बरकरार रखा, लेकिन फरवरी 2024 में खंडपीठ ने इस फैसले को पलट दिया। इसके बाद अब सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई है और इस पर देश की शीर्ष अदालत का निर्णय आना अभी बाकी है।

