Sunday, November 16, 2025

क्यों भारतीय सेना ने माओवादियों पर घातक हमला किया है

भारतीय सुरक्षा बलों ने छत्तीसगढ़ के खनिज-समृद्ध आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी लड़ाकों के खिलाफ एक बड़े स्तर पर अभियान शुरू कर दिया है। यह कदम केंद्र सरकार की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसके तहत वह देश के भीतरी हिस्सों में दशकों से चल रहे सशस्त्र विद्रोह को “समाप्त” करना चाहती है।

छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा पर फैले करिगट्टा पहाड़ी जंगलों को अब एक “युद्ध क्षेत्र” में बदल दिया गया है, जहां 10,000 से अधिक भारतीय सैनिक तैनात हैं। इस माओवादी विरोधी अभियान को “ऑपरेशन जीरो या कगार” नाम दिया गया है।

भाजपा, जो इस समय केंद्र के साथ-साथ छत्तीसगढ़ राज्य की सत्ता में भी है, ने इस वर्ष माओवादी विद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई को तेज कर दिया है। रिपोर्ट्स के अनुसार, इस वर्ष अब तक कम से कम 201 माओवादी लड़ाके मारे जा चुके हैं। इन माओवादियों को आम तौर पर नक्सली के नाम से भी जाना जाता है।

सबसे हालिया मुठभेड़ बुधवार को हुई, जिसमें माओवादियों के एक वरिष्ठ नेता सहित कम से कम 27 विद्रोहियों को मार गिराया गया। पिछले 16 महीनों में छत्तीसगढ़ में कुल मिलाकर 400 से अधिक कथित माओवादी विद्रोही मारे गए हैं। यह क्षेत्र बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी का घर है, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति पहले से ही काफी कमजोर मानी जाती है।

हालांकि सरकार इस अभियान को एक बड़ी सफलता मान रही है, मगर मानवाधिकार कार्यकर्ता और नागरिक समाज के लोग इस पर गंभीर चिंता जता रहे हैं। उनका कहना है कि मारे गए कई लोग वास्तव में निर्दोष आदिवासी हो सकते हैं, जो केवल गलत समय पर गलत जगह पर मौजूद थे।

विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों ने सरकार से अपील की है कि वह माओवादियों के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करे और संघर्षविराम की दिशा में कदम उठाए, ताकि इस लंबे और हिंसक संघर्ष का एक स्थायी और मानवीय समाधान निकाला जा सके।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2000 से लेकर 2024 तक, माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच हुई हिंसक झड़पों में 11,000 से अधिक नागरिक और सुरक्षा कर्मी मारे जा चुके हैं। पुलिस और माओवादी संगठनों के उपलब्ध आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि इसी अवधि में कम से कम 6,160 माओवादी लड़ाके मारे गए हैं।

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार की यह सख्त नीति वाकई में क्षेत्र में शांति और स्थिरता ला पाएगी, या फिर इससे पहले से उपेक्षित और हाशिए पर जी रहे आदिवासी समुदाय और अधिक अलग-थलग हो जाएंगे?

इसका जवाब फिलहाल अनिश्चित है, लेकिन एक बात साफ है – इस जटिल संघर्ष का समाधान केवल सैन्य कार्रवाई से नहीं, बल्कि संवाद, विकास, और न्यायपूर्ण नीति के जरिए ही संभव है।

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