कर्नाटक में हाल ही में लीक हुई जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट ने राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है। सर्वेक्षण के निष्कर्षों को लेकर राज्य के भीतर ही भारी असहमति उभर आई है। कुछ कांग्रेस विधायक और मंत्री इस रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करने की मांग कर रहे हैं, जबकि वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के प्रभावशाली नेताओं और धार्मिक संतों ने इसे “अवैज्ञानिक” करार देते हुए राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन की चेतावनी दी है। यह भी सामने आया है कि सर्वेक्षण प्रक्रिया में गंभीर खामियां थीं—कई परिवारों ने दावा किया कि उनके घर तक कोई नहीं पहुंचा।
राजनीतिक विश्लेषकों ने इस सर्वेक्षण की टाइमिंग पर भी सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का उद्देश्य वास्तव में कांग्रेस के भीतर मजबूत जातिगत नेताओं की ताकत को कमज़ोर करना हो सकता है। यह तब हो रहा है जब एम.बी. पाटिल जैसे नेताओं को डिप्टी सीएम बनाए जाने की मांग तेज़ हो रही है और डी.के. शिवकुमार के लिए भविष्य में मुख्यमंत्री पद की संभावना पर चर्चाएं चल रही हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सर्वेक्षण में जनसंख्या का जातिवार वितरण कुछ इस प्रकार है: मुस्लिम (12.87%), लिंगायत (11.09%), वोक्कालिगा (10.31%), कुरुबा (7.31%), अनुसूचित जाति (18.27%), अनुसूचित जनजाति (7.16%), और ब्राह्मण (2.61%)। सर्वेक्षण के अनुसार ओबीसी कुल आबादी का लगभग 70% हैं, एससी-एसटी 25% और उच्च जातियाँ केवल 5% हैं। सरकार ने ओबीसी आरक्षण को 32% से बढ़ाकर 51% करने का प्रस्ताव दिया है, साथ ही ईडब्ल्यूएस के लिए 10% और एससी-एसटी के लिए 24% आरक्षण को मिलाकर कुल आरक्षण 85% तक पहुंच सकता है, लेकिन यह कदम सुप्रीम कोर्ट की स्वीकृति पर निर्भर करेगा।
लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों ने रिपोर्ट में अपने जनसंख्या आंकड़ों को कम दिखाए जाने पर नाराज़गी ज़ाहिर की है। वे दावा करते हैं कि उनकी असली जनसंख्या क्रमशः 35% और 15% है, जबकि रिपोर्ट में इसे बहुत कम दर्शाया गया है। यह विरोध इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन दोनों समुदायों का कर्नाटक की राजनीति में लंबे समय से दबदबा रहा है—40% से अधिक विधायक इन्हीं समुदायों से आते हैं। लिंगायतों का प्रभाव 124 विधानसभा क्षेत्रों में माना जाता है, खासकर बॉम्बे और हैदराबाद कर्नाटक क्षेत्रों में, जहाँ कांग्रेस ने 2023 में बेहतरीन प्रदर्शन किया। वहीं, वोक्कालिगा समुदाय का प्रभाव 75 क्षेत्रों में है, विशेषकर बेंगलुरु और पुराने मैसूर क्षेत्र में, जो पारंपरिक रूप से जेडी(एस) का गढ़ रहे हैं।
2023 के विधानसभा चुनावों में इन दोनों समुदायों ने कांग्रेस का उल्लेखनीय समर्थन किया—लिंगायतों के 29% और वोक्कालिगा के 49% वोट कांग्रेस को मिले। इन वोटों की बदौलत कांग्रेस को 234 में से 135 सीटों पर जीत मिली। यदि सर्वेक्षण को मान्यता दी जाती है, तो कांग्रेस को इन समुदायों का समर्थन खोने का खतरा हो सकता है।
इस रिपोर्ट ने कांग्रेस के भीतर भी फूट को उजागर किया है। वरिष्ठ नेता जैसे जी. परमेश्वर और एम.बी. पाटिल, जो उपमुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं, हाईकमान के केवल एक डिप्टी सीएम की नीति से असंतुष्ट हैं। दूसरी ओर, डी.के. शिवकुमार का खेमा नवंबर 2025 में सरकार के 2.5 साल पूरे होने पर मुख्यमंत्री पद के लिए रोटेशन की संभावना पर नजर गड़ाए बैठा है। यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि सिद्धारमैया जानबूझकर प्रभावशाली जातियों की संख्या को कम करके दिखा रहे हैं ताकि उनकी राजनीतिक ताकत को सीमित किया जा सके।
कर्नाटक अब तेलंगाना के बाद जाति सर्वेक्षण करने और उसे सार्वजनिक करने वाला दूसरा राज्य बन गया है। राष्ट्रीय स्तर पर, जाति आधारित जनगणना राहुल गांधी के लिए एक प्रमुख रणनीतिक मुद्दा बन गई है। उनका लक्ष्य ओबीसी वोटर्स को फिर से कांग्रेस के पाले में लाना है, जिन्होंने हाल के वर्षों में भाजपा और क्षेत्रीय दलों की ओर झुकाव दिखाया है।
सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार, 1971 में कांग्रेस को 46% ओबीसी समर्थन प्राप्त था, जो 2024 तक घटकर 19% रह गया। राहुल गांधी स्वयं यह स्वीकार कर चुके हैं कि कांग्रेस पिछड़े वर्गों और दलितों का विश्वास खो चुकी है, जो पहले इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के मजबूत आधार हुआ करते थे।
कर्नाटक में सिद्धारमैया और राहुल गांधी का लक्ष्य है—ओबीसी, अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के मतों को एकजुट करना, भले ही इससे वोक्कालिगा और लिंगायत जैसे प्रभावशाली समुदायों को नाराज़ करने का जोखिम हो। गणितीय रूप से देखें तो ओबीसी कुल जनसंख्या का 70% हिस्सा हैं, जिसमें मुस्लिम (13%) और कुरुबा (7%) के साथ वोक्कालिगा-लिंगायत (21%) शामिल हैं। कांग्रेस मुस्लिम और कुरुबा समुदायों में अपनी स्थिति मजबूत बनाए रख सकती है, लेकिन 21% वोक्कालिगा-लिंगायत समर्थन खोने का खतरा है।
बाकी 30% ओबीसी मतदाता छोटे समुदायों जैसे नायडू, एडिगा और मोगावीरा से आते हैं, जो तीनों प्रमुख दलों—भाजपा, कांग्रेस और जेडी(एस)—के बीच बँटे हुए हैं। ऐसे में राहुल गांधी की रणनीति काफी जोखिमभरी है।
अगर जाति सर्वेक्षण को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह राज्य की राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकता है। जो पार्टियाँ अब तक वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय को 40% से ज़्यादा टिकट देती आई हैं, उन्हें अब अन्य ओबीसी समूहों को प्रतिनिधित्व देने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। उत्तर भारत के जाटों की तरह, लिंगायत और वोक्कालिगा भी शक्तिशाली मध्यवर्ती जातियाँ हैं, और इन्हें दरकिनार करने से सामाजिक असंतोष और तनाव की संभावना है।
राहुल गांधी मोदी सरकार पर राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना कराने का दबाव बना रहे हैं। यदि सरकार यह कदम उठाती है, तो कांग्रेस इसका श्रेय लेने की कोशिश करेगी। “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” के नारे के साथ और 51% आरक्षण की सीमा को पार करके, कांग्रेस ओबीसी समर्थन को पुनः प्राप्त करना चाहती है—जो लोकसभा चुनाव जीतने के लिए आवश्यक है।
भाजपा ने प्रधानमंत्री मोदी की ओबीसी पहचान को सामने लाकर और सरकार में ओबीसी प्रतिनिधित्व बढ़ाकर इस वोटबैंक को काफी हद तक अपने पक्ष में कर लिया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार एनडीए को 58% निम्न ओबीसी वोट मिले, जबकि इंडिया ब्लॉक केवल 25% पर सिमट गया।
इस पूरे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि जाति सर्वेक्षण केवल सामाजिक न्याय का मसला नहीं, बल्कि चुनावी समीकरणों को पुनः परिभाषित करने वाला एक बड़ा राजनीतिक दांव है—जिसमें राहुल गांधी ने कदम रखा है, पर रास्ता कांटों से भरा है।